रविवार, 15 मई 2011

ज़मीन

ज़मीन 

अहम् को चुनौती देता एक शेर लिख रहा हूँ...



"ऐसी परवाज़ की बुलंदियों पे,इतराने का सबब क्या

जिसका आग़ाज़ भी ज़मीं हो और अंजाम भी ज़मीं."



हमारी ज़िन्दगी धरती से शुरू होती है हर व्यक्ति एक ऊंचाई छूता है ,फिर संक्षिप्त विश्राम या चिर विश्राम के लिए धरती की ही शरण लेता है तो.....अहम् क्यों विकराल हो हमारे विकास के साथ.
 

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बोल ये थोडा वक़्त बहुत है ,जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले .......