ज़मीन
अहम् को चुनौती देता एक शेर लिख रहा हूँ...
"ऐसी परवाज़ की बुलंदियों पे,इतराने का सबब क्या
जिसका आग़ाज़ भी ज़मीं हो और अंजाम भी ज़मीं."
हमारी ज़िन्दगी धरती से शुरू होती है हर व्यक्ति एक ऊंचाई छूता है ,फिर संक्षिप्त विश्राम या चिर विश्राम के लिए धरती की ही शरण लेता है तो.....अहम् क्यों विकराल हो हमारे विकास के साथ.
"ऐसी परवाज़ की बुलंदियों पे,इतराने का सबब क्या
जिसका आग़ाज़ भी ज़मीं हो और अंजाम भी ज़मीं."
हमारी ज़िन्दगी धरती से शुरू होती है हर व्यक्ति एक ऊंचाई छूता है ,फिर संक्षिप्त विश्राम या चिर विश्राम के लिए धरती की ही शरण लेता है तो.....अहम् क्यों विकराल हो हमारे विकास के साथ.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
बोल ये थोडा वक़्त बहुत है ,जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले .......