बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

विद्रोह के स्वर



जब तक मौन रही इस जग में ,
बंधन बंधे रहे इन पग में ,
जब-जब वरण किये कर्त्तव्य ,
बांटा  निश्छल स्नेह प्यार ,
तब-तब वंचित हो अधिकारों से ,
भोगा शोषण अत्याचार .

अब शेष नहीं है सहनशीलता ,
कि देखूं इन दुर्योगों का पुनार्विस्तर ,
पुरुषों की निर्मित सीमओं को,
फिर से परिभाषित कर दूंगी मै,
सीमित होंगी सीमाए सब ,
उन्मुक्त गगन विचरुंगी मैं,

यदि पुरुषों का है यही पूर्वाग्रह ,
कि नारी तो केवल अबला है ,
तो तज ममता की वो प्रतिमूरत,
धर काली - चंडी का रूप विकट,
ये पूर्वाग्रह भी हर लूंगी मैं ,

नहीं दंभ ,कोई नहीं दुराग्रह,
नहीं याचना मात्र आग्रह ,
जिसने तुमको सौंपा जीवन,
जिसने तुमको बख्शी साँसे,
उसको तो आज उभरने दो ,
वाणी से डर के मेरी ,
यदि मुक्त कंठ मुझे दे न सको ,
मुझे मुक्त श्वांस तो भरने दो ,
मुझे मुक्त श्वांस  तो भरने दो.

                                  -विकल 

 

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